हेल्लो दोस्तों , आप देख रहे है स्टार गुरु , दोस्तों सबसे पहले तो आप सभी भाई बहनो को ईद मिलादून्नबी की मुबारक बाद , दोस्तों अब बात करते है की ईद मिलादुननबी क्यों मनाई जाती है और इसकी हकीकत क्या है?
मिलाद से मुराद है पैदाइश का दिन और
ईद मिलादुननबी का मतलब है नबी-ए-करीम ﷺ की पैदाइश के दिन ईद मानना.
12 रबी-उल-अव्वल को ईदों कि ईद भी कहा जाता है । क्यों कि माहे रमज़ान में कुर्आन-ए-मुकद्स नाजिल हुआ तो वह ईद-उल-फित्र कहलाया और इस महीने में खुद साहिबे कुर्आन (जिनपर कुर्आन नाजिल हुआ वह) हुजूर सल्लल्लाहु अलैही व-सल्लम कि तशरीफ आवरी हुई है । तो यह मुसलमानों कि ईद बल्कि ईदों कि ईद हुई ।
12 रबीउल अव्वल को मुहम्मद ﷺ की विलादत हुई थी और उनकी विलादत का दिन ख़ुशी का दिन है इसलिए हर साल इस दिन को बड़ी ख़ुशी के साथ मनाया जाता हैं , नए कपड़े पहने जाते हैं, घरों में मिठाइयां और पकवान बनाये जाते हैं, और एक जुलूस भी निकाला जाता है जिसमे माइक और लाउडस्पीकर पर नारे लगाते हुए, खुशियां मनाते हैं. हर मुसलमान आल्लाह तआला के बाद अगर सबसे जियादा किसी से मुहब्बत करता है तो पैगंम्बर-ए-इस्लाम हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैही व-सल्लम से करता हैं । इसी का सुबुत हमें ईद मिलादुननबी के दिन देखने को मिल्ता हैं । जैसे ही ईद-ए-मिलादुन्नबी कि आमद होती है । मुसलमानों में एक खुशी कि लहर दौड पडती है । आशिकाने रसुल अपने घरों को सजाते हैं । मोहला दर-मोहल्ला सजाए जातें हैं । झंडे लगाकर अमन-व-सलामती का परचम बुलंद किया जाता है ।
जैसे जैसे ज़माना तरक्की करता रहा वैसे वैसे लोग हर चिज़ अच्छे से अच्छे तरीके से करते रहे । जिस तरह पहले मस्जिदें बिलकुल सादा किस्म कि हुआ करती थी आज आलिशान बन गई हैं । पहले कुर्आन शरीफ सादा तबाअत (छपाई) में होता था । अब बहतरीन छपाई के साथ दस्तीयाब है । साहाबा-ए-किराम के दौर में महफिलें घरों में मुनक्किद होती थी लेकिन आज बडे बडे इज्तेमाआत मुनक्किद होते हैं । जल्सा-व-जुलुस कि शक्ल में नबी अलैहीस्सलाम कि मुहब्बत का सुबुत पेश किया जाता है । शैरनी, मिठाई वगैरह तक्सीम कि जाती है ।
मगर कुछ लोग इसे गलत मानते है उनका कहना है की ईद मिलादुन नबी को कभी भी रसूलल्लाह के ज़माने हयात में नहीं मनाया गया और न ही कभी आप ﷺ ने इसे मनाने का हुक्म दिया.
इस तीसरी ईद को सहाबए कराम में से किसी ने नहीं मनाया ताबईन और तब ताबईन के दौर में भी कभी कहीं इस ईद का ज़िक्र नहीं मिलता और न ही उस ज़माने में भी किसी ने इस ईद को मनाया था.
ऐसे लोगो से कहना है की क्या अपने मुल्क का झंडा कभी किसी सहाबी ने फ़हराया~???
क्या आज़ादी का झंडा लगाना जाईज़ है~???
15 अगस्त यौम-ए-आज़ादी को पुरे मुल्क में तिरंगा फ़हराया जाता है और मुस्लिम मदरसों में भी झंडा लहराया जाता है , ठीक है दोस्तों ये झंडे फ़हराना और आज़ादी का जश्न सुन्नी मदरसों के साथ-साथ सभीं फ़िरक़े के मदरसों में मनाया जाता है और ऐसा करके सभीं मुसलमान अपने मुल्क से मोहब्बत का सुबूत देते है , .
ये बहोत अच्छी बात है क्योंकि अपने वतन से मोहब्बत करना हर मुसलमान का फ़र्ज़ है,,,
मैं भी हमारें वतन हिन्दोस्तान से बहोत बहोत मोहब्बत करता हु और मुझे ईस बात का बहोत फ़ख़्र है की मैं एक हिन्दोस्तानी मुसलमान हु,,,,,
अब दोस्तों ईसमें ग़ौर करने वाली बात ये है की हमारा मुल्क आज़ाद हुवा उसकी आज़ादी का जश्न मनाना जाईज़ है उसका झंडा लहराना,यनि झंडा लगाना जाईज़ है.
लेकिन जब 12 रबी-उल-अव्वल का मुबारक दिन आता है जिस दिन ईस दुनिया को कुफ़्र से आज़ादी मिली अल्लाह के महबूब के मुबारक क़दम ईस ज़मीन पर आए उस दिन जश्न मनानें और सब्ज़ रंग के झंडे लगानें को कुछ लोग जो अपनें आपको मुसलमान कहतें हैं नाजाईज़ हराम और बिदअत कहतें है,,,,,
जबकि हज़रत जिब्रईल अलैहीस सलाम ने उस दिन एक सब्ज़ झंडा मश्रिक़,एक मग़रिब और एक काबे की छत पर लगाया था
अरे नासमझों वतन की आज़ादी के जश्न मनाने का हुक्म कब अल्लाह ने दिया~???कब नबी ने दिया~???या किस सहाबी ने ऐसा किया~???
जब जश्न-ए-ईद-ए-मिलादुन्नबी मनाने का वक़्त आता है तो कुछ लोग हम से दलील मांगतें हैं हम से हवाला मांगतें हैं की जश्न-ए-ईद-ए-मिलादुन्नबी मनाना और झंडें लगाना नाजाईज़ और हराम हैं,
और जब हमारे भारत देश की यौम-ए-आज़ादी का वक़्त आता है तब यहीं लोग अपनी हुब्बुल वतनी यानि वतन से मोहब्बत का सबूत देतें हैं,उस वक़्त ये कोई दलील नही मांगतें,,,,,क्यों सिर्फ़ मुस्तफ़ा जान-ए-रहमत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शान-ए-अक़दस के वक़्त ही ईनकी गंदी ज़ुबानों से गुस्ताख़ियाँ निकलतीं हैं,,
दोस्तों जश्न-ए-ईद-ए-मिलादुन्नबी हर मुस्लिम के लिया सबसे बढ़ कर होना चाहिए क्यों की दोस्तों अगर हमारे नबी नहीं आते तो न तो कुरान न ही नमाज़ न ही हज न ही सूरज चाँद सितारे न ही आसमान बनता न ज़मीं बनती न इंसान बनते ओर जब इंसान ही न बनते तो फिर हम किस पर नाज़ करते मगर हम लोग ये भूल गए हे हम फिरको में बट गए हे जब सब उम्मती की नबी हजूर स. अ. बख्शीश कराएंगे तो आपस में किस लिए झगड़ना ,
दोस्तों नबी की महफिल में किया नाच गाने होते हे या कुछ ओर , अरे नबी की महफ़िल में दिन इस्लाम और हदीस की बाते बताई जाती है जिससे ईमान ताज़ा होता सभी लोग जमा होते और ये अच्छी बात हे अगर हम सब एक साथ जमा होकर हदीस की बात सुने , दिन की बात जाने
दोस्तों मेरा मक़सद जानिए......में किसी को लड़ाना नही चाहता लेकिन आप ख़ूद ग़ौर करों क्या ये सही है~???
मुझे इसीलिए ईन लोगो से नफ़रत है क्यूंकि ईनकें अक़ीदें सिर्फ़ मेरे आक़ा की शान बयान करना ग़लत बतातें हैं और यौम-ए-आज़ादी मनाना सही..
दोस्तों मेरा इस वीडियो बनाने का मतलब ये नही है की मैं अपने वतन हिन्दोस्तान की यौम-ए-आज़ादी के झंडे लगाने के ख़िलाफ़ हु, मेरे इस वीडियो का मतलब साफ़ है,और मेरी ये बात सिर्फ़ और सिर्फ़ उन लोगो के लिए है जो हमारे नबी हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम की यौम-ए-पैदाईश के दिन झंडे लगानें मिलाद मनानें और ख़ुशी मनानें को नाजाईज़ और हराम कहतें हैं
बे अमल दिल हो तो जज़्बात से क्या होता है_______________
ज़मीन बंजर हो तो बरसात से क्या होता है________________
ना हो जिस दिल में मोहब्बत मेरे सरकार की_______________
उस मरे हुए दिल की ईबादत से क्या होता है_______________
नबी का साया-ए-रहमत यहाँ भी है वहाँ भी है______________
हमारें वास्ते जन्नत यहाँ भी है वहाँ भी है__________________
मदीना देख़कर दिवाना-ए-सरकार कहता है________________
हमारें वास्ते राहत यहाँ भी है वहाँ भी है__________________
वहाँ पर आतिश-ए-दोज़ख़ यहाँ अहमद रज़ा वालें___________
वहाबी के लिए आफ़त यहाँ भी है वहाँ भी है_______________
और जो लोग दलील मांगते है उनके लिए एक जरूरी बात , दोस्तों एक सुन्नी चाहे आलिम हो या हाफ़िज़ हो या क़ारी हो या साधारण इंसान हो,वो डंके की चोट पर बोलता है की मैं सुन्नी हु,,,,लेकिन किसी देवबन्दी को देवबन्दी or वहाबी को वहाबी कहदों तो उसका चेहरा लाल पिला हो जाएगा जैसे किसी ने उसके थोबड़े पर जूतें maar diye हो,लेकिन किसी सुन्नी को सुन्नी बोल दों तो उसका चहेरा गुलाब की तरहा ख़िल जाएगा,अगर यक़ीन ना हो तो आज़मा कर देख़ lena ....
मिलाद से मुराद है पैदाइश का दिन और
ईद मिलादुननबी का मतलब है नबी-ए-करीम ﷺ की पैदाइश के दिन ईद मानना.
12 रबी-उल-अव्वल को ईदों कि ईद भी कहा जाता है । क्यों कि माहे रमज़ान में कुर्आन-ए-मुकद्स नाजिल हुआ तो वह ईद-उल-फित्र कहलाया और इस महीने में खुद साहिबे कुर्आन (जिनपर कुर्आन नाजिल हुआ वह) हुजूर सल्लल्लाहु अलैही व-सल्लम कि तशरीफ आवरी हुई है । तो यह मुसलमानों कि ईद बल्कि ईदों कि ईद हुई ।
12 रबीउल अव्वल को मुहम्मद ﷺ की विलादत हुई थी और उनकी विलादत का दिन ख़ुशी का दिन है इसलिए हर साल इस दिन को बड़ी ख़ुशी के साथ मनाया जाता हैं , नए कपड़े पहने जाते हैं, घरों में मिठाइयां और पकवान बनाये जाते हैं, और एक जुलूस भी निकाला जाता है जिसमे माइक और लाउडस्पीकर पर नारे लगाते हुए, खुशियां मनाते हैं. हर मुसलमान आल्लाह तआला के बाद अगर सबसे जियादा किसी से मुहब्बत करता है तो पैगंम्बर-ए-इस्लाम हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैही व-सल्लम से करता हैं । इसी का सुबुत हमें ईद मिलादुननबी के दिन देखने को मिल्ता हैं । जैसे ही ईद-ए-मिलादुन्नबी कि आमद होती है । मुसलमानों में एक खुशी कि लहर दौड पडती है । आशिकाने रसुल अपने घरों को सजाते हैं । मोहला दर-मोहल्ला सजाए जातें हैं । झंडे लगाकर अमन-व-सलामती का परचम बुलंद किया जाता है ।
जैसे जैसे ज़माना तरक्की करता रहा वैसे वैसे लोग हर चिज़ अच्छे से अच्छे तरीके से करते रहे । जिस तरह पहले मस्जिदें बिलकुल सादा किस्म कि हुआ करती थी आज आलिशान बन गई हैं । पहले कुर्आन शरीफ सादा तबाअत (छपाई) में होता था । अब बहतरीन छपाई के साथ दस्तीयाब है । साहाबा-ए-किराम के दौर में महफिलें घरों में मुनक्किद होती थी लेकिन आज बडे बडे इज्तेमाआत मुनक्किद होते हैं । जल्सा-व-जुलुस कि शक्ल में नबी अलैहीस्सलाम कि मुहब्बत का सुबुत पेश किया जाता है । शैरनी, मिठाई वगैरह तक्सीम कि जाती है ।
मगर कुछ लोग इसे गलत मानते है उनका कहना है की ईद मिलादुन नबी को कभी भी रसूलल्लाह के ज़माने हयात में नहीं मनाया गया और न ही कभी आप ﷺ ने इसे मनाने का हुक्म दिया.
इस तीसरी ईद को सहाबए कराम में से किसी ने नहीं मनाया ताबईन और तब ताबईन के दौर में भी कभी कहीं इस ईद का ज़िक्र नहीं मिलता और न ही उस ज़माने में भी किसी ने इस ईद को मनाया था.
ऐसे लोगो से कहना है की क्या अपने मुल्क का झंडा कभी किसी सहाबी ने फ़हराया~???
क्या आज़ादी का झंडा लगाना जाईज़ है~???
15 अगस्त यौम-ए-आज़ादी को पुरे मुल्क में तिरंगा फ़हराया जाता है और मुस्लिम मदरसों में भी झंडा लहराया जाता है , ठीक है दोस्तों ये झंडे फ़हराना और आज़ादी का जश्न सुन्नी मदरसों के साथ-साथ सभीं फ़िरक़े के मदरसों में मनाया जाता है और ऐसा करके सभीं मुसलमान अपने मुल्क से मोहब्बत का सुबूत देते है , .
ये बहोत अच्छी बात है क्योंकि अपने वतन से मोहब्बत करना हर मुसलमान का फ़र्ज़ है,,,
मैं भी हमारें वतन हिन्दोस्तान से बहोत बहोत मोहब्बत करता हु और मुझे ईस बात का बहोत फ़ख़्र है की मैं एक हिन्दोस्तानी मुसलमान हु,,,,,
अब दोस्तों ईसमें ग़ौर करने वाली बात ये है की हमारा मुल्क आज़ाद हुवा उसकी आज़ादी का जश्न मनाना जाईज़ है उसका झंडा लहराना,यनि झंडा लगाना जाईज़ है.
लेकिन जब 12 रबी-उल-अव्वल का मुबारक दिन आता है जिस दिन ईस दुनिया को कुफ़्र से आज़ादी मिली अल्लाह के महबूब के मुबारक क़दम ईस ज़मीन पर आए उस दिन जश्न मनानें और सब्ज़ रंग के झंडे लगानें को कुछ लोग जो अपनें आपको मुसलमान कहतें हैं नाजाईज़ हराम और बिदअत कहतें है,,,,,
जबकि हज़रत जिब्रईल अलैहीस सलाम ने उस दिन एक सब्ज़ झंडा मश्रिक़,एक मग़रिब और एक काबे की छत पर लगाया था
अरे नासमझों वतन की आज़ादी के जश्न मनाने का हुक्म कब अल्लाह ने दिया~???कब नबी ने दिया~???या किस सहाबी ने ऐसा किया~???
जब जश्न-ए-ईद-ए-मिलादुन्नबी मनाने का वक़्त आता है तो कुछ लोग हम से दलील मांगतें हैं हम से हवाला मांगतें हैं की जश्न-ए-ईद-ए-मिलादुन्नबी मनाना और झंडें लगाना नाजाईज़ और हराम हैं,
और जब हमारे भारत देश की यौम-ए-आज़ादी का वक़्त आता है तब यहीं लोग अपनी हुब्बुल वतनी यानि वतन से मोहब्बत का सबूत देतें हैं,उस वक़्त ये कोई दलील नही मांगतें,,,,,क्यों सिर्फ़ मुस्तफ़ा जान-ए-रहमत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शान-ए-अक़दस के वक़्त ही ईनकी गंदी ज़ुबानों से गुस्ताख़ियाँ निकलतीं हैं,,
दोस्तों जश्न-ए-ईद-ए-मिलादुन्नबी हर मुस्लिम के लिया सबसे बढ़ कर होना चाहिए क्यों की दोस्तों अगर हमारे नबी नहीं आते तो न तो कुरान न ही नमाज़ न ही हज न ही सूरज चाँद सितारे न ही आसमान बनता न ज़मीं बनती न इंसान बनते ओर जब इंसान ही न बनते तो फिर हम किस पर नाज़ करते मगर हम लोग ये भूल गए हे हम फिरको में बट गए हे जब सब उम्मती की नबी हजूर स. अ. बख्शीश कराएंगे तो आपस में किस लिए झगड़ना ,
दोस्तों नबी की महफिल में किया नाच गाने होते हे या कुछ ओर , अरे नबी की महफ़िल में दिन इस्लाम और हदीस की बाते बताई जाती है जिससे ईमान ताज़ा होता सभी लोग जमा होते और ये अच्छी बात हे अगर हम सब एक साथ जमा होकर हदीस की बात सुने , दिन की बात जाने
दोस्तों मेरा मक़सद जानिए......में किसी को लड़ाना नही चाहता लेकिन आप ख़ूद ग़ौर करों क्या ये सही है~???
मुझे इसीलिए ईन लोगो से नफ़रत है क्यूंकि ईनकें अक़ीदें सिर्फ़ मेरे आक़ा की शान बयान करना ग़लत बतातें हैं और यौम-ए-आज़ादी मनाना सही..
दोस्तों मेरा इस वीडियो बनाने का मतलब ये नही है की मैं अपने वतन हिन्दोस्तान की यौम-ए-आज़ादी के झंडे लगाने के ख़िलाफ़ हु, मेरे इस वीडियो का मतलब साफ़ है,और मेरी ये बात सिर्फ़ और सिर्फ़ उन लोगो के लिए है जो हमारे नबी हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम की यौम-ए-पैदाईश के दिन झंडे लगानें मिलाद मनानें और ख़ुशी मनानें को नाजाईज़ और हराम कहतें हैं
बे अमल दिल हो तो जज़्बात से क्या होता है_______________
ज़मीन बंजर हो तो बरसात से क्या होता है________________
ना हो जिस दिल में मोहब्बत मेरे सरकार की_______________
उस मरे हुए दिल की ईबादत से क्या होता है_______________
नबी का साया-ए-रहमत यहाँ भी है वहाँ भी है______________
हमारें वास्ते जन्नत यहाँ भी है वहाँ भी है__________________
मदीना देख़कर दिवाना-ए-सरकार कहता है________________
हमारें वास्ते राहत यहाँ भी है वहाँ भी है__________________
वहाँ पर आतिश-ए-दोज़ख़ यहाँ अहमद रज़ा वालें___________
वहाबी के लिए आफ़त यहाँ भी है वहाँ भी है_______________
और जो लोग दलील मांगते है उनके लिए एक जरूरी बात , दोस्तों एक सुन्नी चाहे आलिम हो या हाफ़िज़ हो या क़ारी हो या साधारण इंसान हो,वो डंके की चोट पर बोलता है की मैं सुन्नी हु,,,,लेकिन किसी देवबन्दी को देवबन्दी or वहाबी को वहाबी कहदों तो उसका चेहरा लाल पिला हो जाएगा जैसे किसी ने उसके थोबड़े पर जूतें maar diye हो,लेकिन किसी सुन्नी को सुन्नी बोल दों तो उसका चहेरा गुलाब की तरहा ख़िल जाएगा,अगर यक़ीन ना हो तो आज़मा कर देख़ lena ....